अरविन्द शर्मा
हमारे यहां यह कहावत लंबे समय से चली आ रही है, 'मेरी पड़ोसन खाय दही, मोसे कैसे जाय सही'। ऐसी खबर पिछले दिनों मैंने अखबार में पढ़ी तो बचपन से चौबीस तक की जिंदगी सिनेमा की रील की तरह आंखों के सामने से गुजर गई। दिमाग ने कहा कि नहीं इस बात पर यकीन करना बेमानी है, लेकिन क्या करें यह कमबख्त दिल है की मानता ही नहीं, चाहे कोई कितना भी समझाए। दिल का भी क्या कहना, इसी दौरान कोई खुबसूरत बला आंखों के सामने से गुजरी तो दिल बाबू की ताक-झांक फिर से शुरू हो गई। अगर पड़ोस चैन से रोटी खा रहा है तो वह भी हमें सहन नहीं होता। मेरे पड़ोसी और कुछ साथियों को भी रोटी नहीं पचती है, जब तक हमारी बुराई नहीं कर दें। अब अपने पड़ोसियों को ही देख लो। भारत में क्या चल रहा है? इसकी प्रतिक्रिया अपने देश से ज्यादा पाकिस्तान में होती है। और सीमापार की खबरों ने के लिए भी हम मचलते रहते हैं। ताकना भी कई तरह का होता है। कुछ लोग चोरी-चोरी ताकते हैं। सीधे ताकने की हिम्मत नहीं होती। यह ताका-झांकी किशोरावस्था में चलती है। देखने वाले ऐसे ताकते हैं जैसे आंखों से काजल चुरा रहे हों। युवावस्था में आशिक की नजरें सीधी होने लगती है। पर यहां की कुछ शर्मोहया बची रहती है। दिल में धुकधुकी सी रहती है कि कहीं जिसे ताका जा रहा है वह रिजेक्ट न कर दे। अधेड़ावस्था तक ताका-झांकी में बेशर्मी छा जाती है। लेकिन यहां भी कुछ मानते नहीं है। कुछ लोग बागों में सिर्फ इसलिए घूमने जाते हैं कि वहां खिलती कलियों और फूलों को निहार सकें। अपने कुछ मित्र लोगों को भी यह आदत है। वैसे ताकने-झांकने के लिए बुढ़ापा काफी मुफिद होता है। आदमी उल्लू की मानिद ताकता रहता है पर कोई उस पर ध्यान नहीं देता। बाज शख्स तो सौंदर्य का नजारों से ही नहीं कदमों से पीछा करना शुरू कर देते हैं। ऐसे लोगों को सरे बाजार पिटते देखा गया है। बहरहाल हमारी तो युवाओं को यही सलाह है कि गति से प्रथम सुरक्षा रखें। तेज नजरों और तेज कदमों से दौडऩे की अपेक्षा हौले-हौले चलें। तेज दौडऩे वाले ही ठोकर खाकर गिरते हैं। बेहतर तो यही है कि इस ताका-झांकी की आदत से बाज आ लिया जाए। जिंदगी में एक बरस कम नहीं होता।
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