हे विराटरूप धारिणी दालदेवी, तुम्हें नमस्कार है!

सूर्यकुमार पांडेय
हे भारत भूमि के भोले-भाले मानुसों का गृह बजट बिगाडऩे वाली, भावों के मामले में समस्त खाद्यान्नों को पछाडऩे वाली, अपने दिव्य छिलकायित स्वरूप के समान आम आदती की दो भाग बखिया उधेडऩे वाली, तमाम दहलनों के तन-बदन पर अपनी हैसियत का झंडा गाडने वाली, अपने लघु स्वरूप में विराटरूप धारिणी, तड़कामारिणी, चमत्कारिणी दाल देवी, तुम्हें अनंत बार नमस्कार है।
हे देवी, जो रिश्ता वृक्ष का छाल से, बंदर का डाल से, रोटी का थाल से, शेयर का उछाल से, सूखी लकड़ी का टाल से, मरीज का अस्पताल से, जवाब का सवाल से, ट्रेड यूनियन का हड़ताल से, ताल का भोपाल से, उज्जैन का महाकाल से, टूरिस्ट का नैनीताल से, शैंपू का बाल से, बाल का खाल से, खाल का गाल से, पाकिस्तान का टेढ़ी चाल से, फुटबॉल का बंगाल से, घोड़े का नाल से, होली का गुलाल से, कस्टमर्स का मॉल से और मोबाइल का मिस्ड कॉल से, वहीं रिश्ता आदमी का दाल से है। हे इन सहज संबंधों की ध्वंसकारिणी, उच्चभावविहारिणी, हृदयविदारिणी दाल देवी, तुम्हें असंख्य बार नमस्कार है।
हे देखने में अदना, गोल-मटोल बदना, एक गरीब ने तुम्हें हाथ लगाना चाहा, उसे बिजली का झटका लगा। एक मजदूर ने तुम्हारा भाव पूछा और किराने की दुकान पर ही बेहोश हो गया। तुमको जिस भी किसान ने अपना खून-पसीना बहाकर रात-दिन की मेहनत से तैयार किया, तुमने उसके ही होंठों से लगने से इनकार किया। देवी, हमारे पाप क्षमा करो कि हम नीलगाय आदि पशुओं से तुम्हारी रक्षा नहीं कर पाते। तुम्हारी कृश काया को उकठा नामक रोगासुर निरंतर कष्ट प्रदान करता रहता है। हम इसके उपचार में भी अशक्त होते हैं। हे देवी, तुम अपने कोप के प्रकोप को शांत करो। प्रसन्न हो। हे क्षुधानाशिनी, बाजार उपहासिनी दाल देवी, तुम्हेें कोटि-कोटि नमस्कार हैं।
हे देवी, तुम्हारें अनंत रूप हैं। तुम न होती तो मूसलचंद का कोई पूछनहारा न होता। तुम कभी मूंग बनकर छाती पर दली जाती हो तो कभी तुअर बनकर पुअर को सताती हो। कभी मसूर की दाल बनकर मुंह तक को मुंह चिढ़ाती हो तो कभी खीचड़ रूप में पेशेंट का पथ्य बन जाती हो। जूते में बंटती हो। आयात में भी तुम्हीें हो, निर्यात में भी तुम्हीं। तुम रोटी की सहेली हो। भात की गर्लफें्रड हो। तुम हींग और जीरा की प्रिय सहेली हो। तुम बटलोई से कुकर तक की वासिनी हो पर आज तुम्हारा अदहन भी घर-घर में लंका दहन के समान प्रतीत हो रहा है। तुम्हारा न गलना हमें खल रहा है। तुम्हारे अरहरी रूप के भक्तगण क्राई कर रहे हैं, क्योंकि उलटा तुमने ही इन्हें फ्राईं कर डाला है। आज तुम कीमत के मामले में नब्बे के पार हो। बखरी, बोरी, कनस्तर और डिब्बे से फरार हो। हे जमाखोरों की आनंददायिका, लवणयुक्ता, सुस्वादु प्रदायिका, किचन नायिका दाल देवी, तुम्हें शत-शत नमस्कार है।
हे व्यंजनों की अधीश्वरी, हम तुम्हारी शरण में आए हैं। तुष्ट की चिह्वा पर चर्चा रूप में विराजिता हो। आओ, अब साक्षात हमारी चिह्वा पर चरण धरो। हमारे किचन का आधार तुम ही हो। तुम रोटी के साथ उपस्थित होकर दीन जन की क्षुधा तृप्त करने वाली आदि शक्ति हो। तुम बेसन और अनेकानेक फूड्स,स्वीट्स के मध्य स्थित होकर जीभ को तृप्ति प्रदान करनेवाली महाशक्तिदायिका हो। हे गृहदशा विदारिणी, भोजन संवारिणी, लघुस्वरूपा धनहारिणी दाल देवी, तुम्हें नमस्कार है।

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2 Comments

बहुत बढिया. लाजवाब! मज़ेदार पोस्‍ट पढाने के लिए आपका शुक्रिया.
Anonymous said…
BY BHADAS BLOG
नारदमुनि said...
narayan narayan