अरविन्द शर्मा
अब सोचता हूं कि अच्छा हुआ बचपन में किसी ने परियों की तरह ड्रेकुला की कहानी नहीं सुनाई। आज ड्रेकुला होता तो वो भी शर्मसार हो जाता। राजस्थान के हिंडौनसिटी में बच्चों का खून निकालने का मामला सामने आने के बाद हर किसी के दिल की धड़कनें थमी हुई है। ड्रेकुला के दीमाक में भी कभी ऐसा घिनौने खेल की तस्वीर नहीं बनी होगी कि बच्चों का खून चूसने के लिए उन्हें कचौरी और ज्यूस का लालच दिया जाए। इन खूनी भेडिय़ों ने तो अपने भाई और मौसी के लड़के को भी नहीं बख्शा। आज डे्रकुला सच में होता तो इन लोगों को अपने चेला नहीं गुरू जरूर बनाता। मैंने जब यह खबर पहली बार सुनी तो मेरे बदन में सनसनी दौड़ी गई थी। खून के इस काले कारोबार ने प्राइवेट अस्पतालों पर भी सवालिया निशान लगा दिया है। सिंह अस्पताल के संचालक रघुवीर को पुलिस जब अदालत में पेशी के बाद थाने ले जा रही थी, तभी अदालत के बाहर खड़ी परिवार की महिलाएं रघुवीर से मिली और दुलार दिखाते हुए उसके चेहरे पर हाथ फेरा। इस दुलार को देख रघुवीर की आखें भई आई। लेकिन, रघुवीर जैसे इन लोगों का दिल उस वक्त क्यों नहीं पसीजा, जब नन्हें बच्चों के शरीर से वे खून की बूंदे निचोड़ रहे थे? इन महिलाओं की ममता, प्यार, दुलार और दया कहां गई थी, जब रघुवीर यह घिनोने काम कर रहा था?
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