अरविन्द शर्मा
दिल्ली के एक बड़े अखबार का मुख्य पेज देखकर तो एक दिन मैं चौंक ही "या। बिजली परियोजना से जुड़ी यह खबर पांच-छह लाइन की थीं। खबर में दो-दो रिपोर्टर का नाम था। इसी तरह राजस्थान के एक अखबार में महज दस लाइन की खबर में तीन-तीन रिपोर्टर का नाम ल"ा हुआ था। अब भई कोई यह तो बताए कि चार-पांच लाइन वाली खबर में दो और दस लाइन की खबर में तीन रिपोर्टर ने किया क्या था? कहीं ऐसा तो नहीं है कि एक रिपोर्टर बीट में "या हो, दूसरे ने फोन किया हो और तीसरे ने खबर कम्प्यूटर पर कंपोज की हो? अब सवाल उठता है कि बायलाइन (रिपोर्टर का नाम ल"ाने) के लिए क्या कोई 'संविधानÓ है या नहीं? यह सवाल मुझसे कई पत्रकार कर चुके हैं, लेकिन मैं हर बार यह कहकर उनकी बात टाल देता हूं कि पत्रकारों को और मिलता क्या है, उनके पास ले देकर एक बायलाइन ही तो है। पिछले दिनों एक पत्रकार साथी ने भी मुझसे ई-मेल के जरिए यह सवाल पूछा था।
कभी-कभी तो ऐसी खबरें भी बायलाइन के साथ पढऩे को मिल जाती हैं, जिनको देखकर हस्सी है कि रूकती ही नहीं। पहले तो वह खबर ही रिपोर्टर ने क्यों लिखी और दूसरा लिख भी दी तो बायलाइन वाली इसमें बात क्या है। बायलाइन की बढ़ती भूख के कारण हमारे कुछ पत्रकारसाथी एजेंसी की खबरें भी उठाने से नहीं चुक रहे हैं। एजेंसी की वेबसाइट खोली, खबर उठाई और हाथ-पैर तोड़े और फिर से जोड़े, और लो तैयार हो "ई बायलाइन खबर। अब ताजा उदाहरण स्वाइनफ्लू का ही लीजिए। दिल्ली के ही कुछ अखबारों ने इस खबर को रिपोर्टर के नाम के साथ के साथ परोसा तो तो कुछ ने 'मेट्रो, न"र, हमारे संवाददाताÓ की डेटलाइन ल"ाकर। अ"र उन खबरों को "ौर से पढ़ा जाएं तो भाषा के अलावा कोई फर्क नजर नहीं आता है। आंकड़ें और अधिकारियों से बातचीत तो एक ही है। तो क्या बायलाइन के लिए भी कोई संविधान बनाए जाने की जरुरत है।
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